Rajeev kumar singh
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राजाशिवछत्रपती भाग १
इस वर्ष छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के ३५० वर्ष पूर्ण हो रहे है। अतः हमने छत्रपति शिवाजी महाराज के विषय मे कुछ जानना चाहिए इस अपेक्षा से बाबा साहेब पुरंदरे द्वारा लिखी गई राजा शिवछत्रपति पुस्तक के कुछ अंश से आपको प्रतिदिन परिचित करवाया जाएगा। आप प्रतिदिन पढ़ेंगे व अन्यों को भी छत्रपति शिवाजी महाराज की शौर्य गाथा से परिचित करवाएंगे ऐसी अपेक्षा......
प्रलय की पहली लहर
महाराष्ट्र में सब कुछ मंगलमय और आनंदमय था ।अचानक चमचमाता चंद्रमा वलय में घिर गया । आठ हज़ार घोड़ों के बत्तीस हज़ार सुम (खुर) पूरे आवेग से धड़धड़ाते हुए महाराष्ट्र की भूमि पर प्रविष्ट हुए । उन पर सवार आठ हज़ार अफ़गानी सैनिक इस भूमि पर टूट पड़े। हज़ारों आक्रोशित अफ़गानी कंठ, फड़फड़ातीं मज़बूत कलाइयाँ, क्रोध से फुफकारते वे अफ़गानी सीने महाराष्ट्र पर टूट पड़े। बेलाग आवेग से सराबोर वे हत्यारे तथा रक्त के प्यासे लपलपाते उनके हथियार.... !
उनका सरदार था अलाउद्दीन खिलजी, एक पठान । उसकी युद्ध पुकार समूचे आसमान को भेद रही थी। इस भयंकर आवाज़ से दिशाएँ चटक रहीं थीं। आसमान धूल-धूसरित हो गया था। घोड़ों के सुम तले ज़मीन उखड़ रही थी। पठानी फौज नर्मदा नदी को पार करते हुए सतपुड़ा के माथे पर पहुँच गई थी। वहाँ ऊँची चट्टान पर चाँद तारा फहरा रहा था। पठानों ने सर्वप्रथम दबोचा एलिचपुर को । आर्त आक्रोश से, गहरी चीखों से वातावरण दहल गया। महाराष्ट्र पर दुश्मन का आक्रमण तीव्र गति से हुआ था । इस प्रकार के दानवी संकट से से लोग पूर्णतया अनभिज्ञ थे, अपरिचित थे।पठानी आक्रमण की दिल दहलाने वाली खबर देवगिरि तक पहुँच गई । यह वास्तविकता भी कि खैबर घाटी से भारत देश की सीमा में घुसा यह पठान पिछले दो सौ वर्षों से दिल्ली पर राज कर रहा था । उसका मनसूबा समूचे भारत पर अधिकार जमाना तथा नया इतिहास रचना था। इसी गहरी महत्त्वाकांक्षा को वह अपने मन में संजोए हुए, असलियत का जामा पहनाने के लिए बेकरार था । इसी राक्षसी लालसा का परिणाम थायह आक्रमण। कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र के साधु-संतों ने उत्तर भारत में तीथार्टन किया था। उन्होंने सुलतानी सत्ता को देखा, समझा और जाना था । कठोर एवं वेदनामय अनुभवों का सामना भी किया था। अपने राजकर्ताओं को उन्होंने इन कटु अनुभवों से अवगत भी कराया । फिर भी वे असावधान रहे। इस सत्य की उन्होंने पूरी तरह उपेक्षा कर दी ।अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के सुलतान जलालुद्दीन खिलजी का भतीजा था। उसका निकाह जलालुद्दीन की बेटी के साथ (यानी अपनी चचेरी बहन के साथ) हुआ था। इस प्रकार वह जलालुद्दीन का दामाद भी था । अलाउद्दीन के इस वहशी आक्रमण की खबर राजा रामदेवराय को बड़ी देर से लगी । सतपुड़ा के पहाड़ 'के' को लाँघ कर खिलजी एलिचपुर में घुस आया, यानी महाराष्ट्र में करीब सौ कोस भीतर । (आज के हिसाब से करीब 325 किमी०) फिर भी उसे किसी ने नहीं रोका-टोका ! सवाल यह है कि उस समय कहाँ थी हमारी सेना? क्या कर रही थी ? राजा तो अनभिज्ञ था परंतु सेनापति क्या कर रहा था उस घड़ी में? कौन था सेनापति उस समय ? सेनापति थे, राजा रामदेवराय के सुपुत्र युवराज डांकरदेव उर्फ (बनाम) सिंघणदेव । वह अपनी सेना के साथ कहीं दूर यात्रा पर निकला हुआ था।
अलाउद्दीन की फौज देवगिरि की ओर तेज़ी से बढ़ रही थी। रामदेवराय ने बाकी बची सेना को अपने एक मांडलिक (क्षेत्रीय नरेश) के नेतृत्व में अलाउद्दीन का सामना करने घाट लाजौरा की ओर रवाना कर दिया। घाट लाजौरा में यह सेना अलाउद्दीन की सेना के साथ भिड़ गई। इस घमासान में यादव सेना कोमल पातों-सी कट गई। किसी अंधड़ की तरह इस सेना को सूखे पत्तों जैसा हवा में बिखेरते हुए अलाउद्दीन देवगिरि की ओर निकल गया। उसकी सेना में सैनिक थे - मात्र आठ हज़ार परंतु उसकी हिम्मत की दाद देनी होगी! वह बेखटके आगे बढ़ता गया। कुछ समय पहले उसने विदिशा पर धावा बोला था। वहाँ उसे देवगिरि के असीम वैभव की खबर मिली थी । बहुत सारे किस्से सुने थे उसने देवगिरि के ! उसकी महत्त्वाकांक्षा जागी और उसने देवगिरि को पूर्णतया लूटने की ठान ली। इससे पहले विदिशा में लूटा गया अपार धन उसने दिल्ली भेज दिया। उसका ससुर जलालुद्दीन बेहद खुश हो गया और इनाम के तौर पर उसने अपने दामाद को 'अर्जे मामलिक' का ओहदा बहाल किया। 'अर्जे मामलिक' का अर्थ है शाही फौज का सर्वश्रेष्ठ (मुस्तफा) अधिकारी। पहले अलाउद्दीन का ओहदा था एक सामान्य सूबेदार का! परंतु उसकी बेजोड़ हिम्मत ने उसे ओहदा दिलवाया था। मात्र आठ हज़ार सैनिकों के बलबूते पर वह देवगिरि पर हमला करने निकल पड़ा था । कितनी हिम्मत ! कितना आत्मविश्वास ! उत्तर भारत के इस इलाके से पाँच सौ कोस से भी अधिक दूरी पर बसे देवगिरि जैसे स्वतंत्र एवं हर प्रकार से मज़बूत माने जाने वाले राज्य पर इस प्रकार धावा बोलना आसान नहीं था, फिर भी वह जोश-खरोश के साथ आगे बढ़ता गया। शायद उसका कलेजा शेर-सा रहा होगा! वह माणिकपुर से निकला (12 दिसंबर, 1293) और बुंदेलखंड से होते हुए मालवा में विंध्याचल पहुँचा। वहाँ से नर्मदा नदी पार करते हुए सतपुड़ा की पर्वतश्रृंखला पर पहुँचा। वहाँ से एलिचपुर और अंत में देवगिरि आ इतना धमका।
माघ का महीना। शुक्ल पक्ष । अलाउद्दीन देवगिरि के निकट पहुँच गया था। राजा रामदेवराय पूजा करने हेतु मंदिर की ओर जा रहे थे । घाट लाजौरा की हार की खबर राजा तक पहुँचने से पहले ही दुश्मन वहाँ आ धमका था। चारों ओर भगदड़ मच गई । देवगिरि के किले पर रणभेरियाँ बजने लगीं। नगर में कुल चार हज़ार सैनिक ही मौजूद थे। इस छोटी-सी सेना के साथ राजा रामदेव शत्रु का सामना करने आगे बढ़े। देवगिरि से करीब दो कोस की दूरी पर उनकी मुठभेड़ हो गई। बहुत ही कम समय में युद्ध की आग ठंडी पड़ गई। यादव सेना आततायी के सामने टिक न पाई । सेना किले की ओर भागने लगी। किले की तलहटी में बसा था देवगिरि नगर । बड़ी आसानी से वह अलाउद्दीन की चपेट में आ गया। अफ़गानी पंजों ने प्रजा को दबोच लिया। पठानों का आक्रमण हुआ देवगिरि की अनमोल इज्ज़त पर | दर्दनाक चीखें हवा में घुलती गईं, लेकिन उन्हें सुनने वाला उनका अपना वहाँ कोई नहीं था! जुल्म करने वाले भी अफ़गानी... चीखें सुनने वाले भी अफ़गानी ! चारों ओर लूटपाट, छीना-झपटी मच गई। अच्छी नस्ल के हज़ारों अश्वों और हाथियों को शत्रु ने छीन लिया। इसी लूटपाट के दौरान खिलजी ने देवगिरि के किले को चारों ओर से घेर लिया। देवगिरी का किला मजबूत और अभेद्य था......